Excerpts from श्रीतन्त्रालोकः Part-1

29 May 2020 |

प्रथममाह्निकम्

शिव-सूत्र है-‘नर्तक आत्मा’ । नर्तन का तात्पर्य है-अपने स्वरूप को सृष्टि के मूल में रखकर विश्व के उस विचित्र प्रपञ्च का प्रकाशन ।

माया ने ‘कला’ तत्त्व को उत्पन्न किया। जिसके सम्पर्क से पुरुष कुछ उत्पन्न क्रियाओं को करने में समर्थ हुआ। पुनः माया ने ‘विद्या’ और ‘राग’ तत्त्व को उत्पन्न किया। ‘विद्या’ कार्य-कारण भाव भावित कर्म का विवेचन करती है, जिससे पुद्गल को अपने कर्म की जानकारी होती है । ‘राग’ उसका रञ्जन कर सीमित अशुचि सम्बन्धों को अपनाने पर विवश करता है और पुमान् अपूर्ण बन जाता है । ‘नियति’ इसे उन-उन कामों में लगाती रहती है, जिससे इसकी व्यापकता नष्ट हो जाती है। ‘काल’ तुटि पल विपल आदि के आकलन में फंसा लेता है।

रस का ज्ञान रसना ही कर सकती है । रूप का ज्ञान केवल नेत्र ही कर सकते हैं । वहाँ रूपात्मक ग्रहण तो है पर पूरे तरु का ज्ञान सम्भव हो जाता है । जबकि सर्वात्मना यह ग्रहण नहीं होता। ऐसा होने पर हम यह कह सकते हैं कि पेड़ का ग्रहण तो हुआ ही नहीं। पर ऐसा हम नहीं कहते । अनुभव में तो पेड़ आ ही जाता है। यदि ग्रहण न मानेंगे तो अनुभव का ही विरोध होने लगेगा । इसी प्रकार नाद शक्ति के द्वारा या विन्दु आदि शक्तियों के द्वारा शिव ज्ञात हो जाते हैं-यह सिद्धान्त स्वीकृत है। इस तथ्य को उसी जगह यों कहते हैं-

“प्रत्यक्ष रूप से जैसे वृक्ष-रसादि के गृहीत न होने पर भी रूप मात्र से ही इन्द्रियगोचर हो जाता है, उसी तरह शिव भी ज्ञान शक्ति के द्वारा अनुभूत हो जाता है । यह अनुभूति तात्त्विक होती है। यहाँ अनुभूति में वस्तु भावना का सर्वथा अभाव होता है।”

इस मान्यता के अनुसार जो कुछ जड़-चेतन रूप यह विश्व वैचित्र्य है तथा जो यह विचित्रताओं से भरी सृष्टि रचना है, जाग्रत्-स्वप्न सुषुप्ति आदि अवस्थायें हैं, ये सभी उसी परमेश्वर परम शिव के स्फार रूप ही हैं। उसी आधार पर कहते हैं- शिव की अनन्त शक्तियों का (शास्त्रों में) कथन है। यह (आनन्त्य) उससे निष्पन्न कला, तत्त्व, भुवन, वर्ण, अणु (मन्त्र) और पद नामक षडध्व और पञ्च महाभूतात्मक महा विस्तार है ॥ ७८ ॥

शक्ति मध्य नाडी के बीच में बिस तन्तु के समान शोभमान रहती है। ध्यानकर्ता उसका ध्यान करता है। अन्तर्योम रूपिणी उस देवी के द्वारा ही वह परम देव शिव प्रकाशित होता है।

समस्त इन्द्रियार्थ रूप विषयों में अवस्थित (वही परम तत्त्व है)। जितनी ही इसकी विवेचना करते हैं-इसे निरूपित करने का प्रयत्न करते हैं-वहां वहाँ वही मिलता है। शिव के अतिरिक्त कहीं कुछ भी नहीं।

समस्त विश्व भेद के अवभासों से भरा हुआ है। यह भेद बुद्धि हो कालुष्य है । कल्मष है। साधक इस दोष से रहित होते हैं । वे क्षीणकल्मष मन वाले होते हैं । उनको विमर्श रूप बोध हो जाता है। शरीर में मुख हाथ आदि की स्मृति के विकल्प से सारा विश्व ग्रस्त है। “सारा विकल्प ही स्मृति है।” इसके अनुसार स्मृति मात्र का अर्थात् इस विकल्पात्मक संस्कार का निरोधन आवश्यक है। जैसे श्यामपट पर लिखी लकीर मिटा देने पर कुछ नहीं रहता है, उसी प्रकार भेदात्मक विकल्प को मिटा देने पर साधक निर्मल हो जाता है।

स्वयमेवं विबोधश्च तथा प्रश्नोत्तरात्मकः । गुरुशिष्यपदेऽप्येष देहभेदो ह्यतात्त्विकः ॥२५६॥

तथ्य है कि गुरु और शिष्य का परस्पर भेद प्रत्यक्षसिद्ध है, पर अवास्तविक है। बोध रूप शिव ही स्वातन्त्र्य के प्रभाव से गुरु शिष्यादि देह भेदों का अवभासन करता है l


3. तृतीयमाह्निकम्

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि विश्व अतिरिक्तायमान होते हुए भी अतिरिक्त नहीं है अपितु संविदुल्लास रूप से ही स्फुरित है। जैसे दर्पण में मुख के अतिरिक्त प्रतिभासन नहीं होता । अर्थात् यह सारा विश्व संविद्रूप परमेश्वर का ही एक मात्र रूप है, पृथक नहीं। ।।४४।।

विश्वात्मा के चैतन्य दर्पण के अन्तर अवकाश में समस्त अनन्त वैचित्र्य अवभासित है । बोध अपने विमर्श स्वभाव के बल पर विश्व को परामृष्ट कर लेता है । जड में [जडदर्पण में] यह परामर्श नहीं होता क्यों कि वह निर्विमर्श है। ।।६५।।

“ये अघोर अर्थात् भेदवाद रहित शुद्ध स्वातन्त्र्यमयी शिवशक्तियाँ परा कही जाती हैं। यही प्राणियों को शैवी धाम प्रदान करती हैं।” ऐसी शक्तियों की प्रभु वही पराशक्ति है। प्रभु शब्द से सर्वोत्कर्ष का द्योतन होता है। इसमें अनन्त शक्तियाँ समाहित रहती हैं। इसी से तीसरे ह्रस्व ‘इ’ वर्ण का उदय भी होता है। इसी इच्छा शक्ति द्वारा चिन्मयता के चरमोत्कर्ष के आनन्द का महोल्लास स्वाभाविक रूप से होता है। विचित्र रचना की चारुता से चमत्कृत कार्यों से कौतुक मयी सृष्टि के प्रवर्तन में उन्मुखता को चिन्ता उत्पन्न होती है । चिन्ता हो इच्छा को प्रथम तुटि है ।’’

यह उन्मेषमयी परापरा देवी घोरा कही जाती है। यह शुद्ध और अशुद्ध दोनों मार्गों की अधःपात करने वाली स्थितियों की ओर उन्मुख करने वाली मातृशक्तियों का भी सृजन करने में समर्थ है और निरन्तर उनका सृजन करने में प्रवृत्त भी है। कहा गया है- “मिश्रित कर्मों के फलों की ओर आसक्त करती हैं और मुक्ति मार्ग की बाधिका भी हैं। यही परापरा शक्तियाँ घोरा हैं।” यह पंचम बीज वर्ण के आद्यस्पन्द की अक्षुब्ध अवस्था में होने वाली अनुभूति का चित्रण है। इसे वर्णमातृका में ‘उ’कार कहते हैं ॥७४।।

“महेश्वर की शक्तियाँ ही यह सम्पूर्ण विश्व है और शक्तिमान् तो वही संविन्नाथ परमेश्वर ही है।” इससे यह स्पष्ट है कि निमेष और उन्मेष दशाओं की कलना अर्थात् अभेद में भी भेदवाद के स्वातन्त्र्य का आश्रय वही महेश्वर है ॥९८-९९।।

“दीपक के प्रकाश से या सूर्य की किरणों से जैसे दिशाओं की स्थिति का स्पष्ट ज्ञान होता है, उसी तरह शक्तियों के द्वारा शिव भी ज्ञात होते हैं।”

स्वात्मतत्त्व का स्वात्मतत्त्व में ही स्वात्मक्षेप होता है। किसी दूसरे पदार्थ का उसके अतिरिक्त किसी दूसरे स्थान में उल्लास नहीं होता अपि तु विभिन्न अनन्त विचित्र आभासों में वही स्वात्म तत्त्व उल्लसित होता है । माया और प्रकृति का उपादान तो स्वात्म तत्त्व ही है । सृष्टि और संहार माया के विभ्रम नहीं अपि तु वैसर्गिको स्थिति के ही प्रतीक है ।। १४१ ।।

यह सारा प्रपञ्च मुझसे ही उदित है, मुझमें ही प्रतिबिम्बित है और मुझसे अभिन्न है। ये तीन शाम्भवोपाय की अनुभूतियां हैं ।


4. चतुर्थमाह्निकम्

कहा गया है “पारमार्थिक विकल्पावस्था में भी विज्ञ साधक लीन न रहे। चाहे शुभ हो या अशुभ, विकल्प तो विकल्प ही होता है।” इसलिये इसमें नहीं रमना चाहिये। अभ्यास करते निर्विकल्पात्मक भाव प्राप्त करना ही श्रेयस्कर है ।। ६ ।।

विषय की इच्छा संसार से बाँधती है। यह इच्छा नियति कञ्चुक से मिलकर राग तत्त्व बन जाती है । सभी विषयों को पाने की प्रबल लोलुपता इसमें होती है। राग से चित्त रंग जाता है ।

जैसे दीप बुझ जाने पर न तो पृथिवी पर और नहीं अन्तरिक्ष पर अपना प्रकाश फैला सकता है। न देश में न दिशा में ही कहीं कुछ कर सकता है। तेल के चुक जाने पर केवल शान्ति पा लेता है, उसी तरह योगी भी निवृतिकी अवस्था में क्लेश के क्षय हो जाने पर केवल शान्ति प्राप्त कर लेता है।

जिसका निष्कर्ष यही है कि माया इन्हें मोक्ष लिप्सा से अमोक्ष में भ्रान्त कर देती है। माया सर्वजन्तु विमोहिनी निर्वेर परिपन्थिनी है । अतः इनकी बुद्धि को वही भ्रान्त कर देती है । यह वास्तविक है और यह वास्तविक नहीं है—इसी प्रकार के विवाद में ये पड़े रहते हैं । सत्पथ से उन्हें उत्पथ में माया ही प्रवृत्त कर देती है।

इस जागतिक आकर्षण में आकृष्ट लोग अपने कर्तव्यों के निर्धारण में सारा जीवन लगा देते हैं । परार्थ के प्रति उनमें कोई रुचि नहीं दीख पड़ती। जो साधक साधना के बल पर अपने समस्त मलों का निराकरण कर भैरवी भाव से परिपूर्ण हो जाता है, उसके लिये यहाँ कोई कार्य शेष नहीं रह जाता। वह मात्र लोक संग्रह के लिए ही अपने जीवन का उपयोग करता है।”

“अनादि अनन्त विश्व का कारण परमेश्वर है । वह अकारण कुपालु है ।” यहाँ से “पाशबद्ध पशुजनों को परमेश्वर ही मुक्त करते हैं।” यहाँ तक उसी सिद्धान्त का निर्वाह किया गया है। इसीलिये परमेश्वर को ‘जगत्पति’ शब्द से विभूषित करते हैं ।।५५-५६।।

अपनी स्वातन्त्र्य शक्ति के बल पर विश्व रूपता के अवभासन का अभिलाषी परमेश्वर शिव संकुचित प्रमाता बन जाता है । फिर प्रमाण प्रमेयदि रूपों में अधिष्ठित हो जाता है। यह कार्यकारण भाव से व्यक्त पाञ्चभौतिक विश्व उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। शिव का ही यह स्थूल अवभासन मात्र है ॥ १३५ ॥

स्वाभाविक अहं परामर्श में विश्राम करने वाला योगी जो व्यवहार करता है, जो विमर्श या परामर्श करता है और प्रसार प्रक्रिया पूरी करता है– वह सब उसका जप ही है। एक तरह से वह स्वात्म देवता का अनवरत आवर्तन करता है। उसका यह आवर्तन उसके लिये मन्त्र रूप ही होता है। कहा गया है—’कोई श्लोक, कोई कविता, कोई गाथा या कथोपकथन सोहं के विमर्श परिवेश में करता है तथा उसे साक्षीभाव से देखता रहता है, वह सब मन्त्रात्मक हो जाता है।” शिव सूत्र है- “कथा ही जप है।” इस सूत्र का भी यही तात्पर्य है। इसके अतिरिक्त “कोई बात भी करे तो वह जप ही हो जाता है।” यह उक्ति भी है। सब का निष्कर्ष यही है कि इस आदिमान्त्य मन्त्र-परामर्श से पीछे कहे जप आदि के समान ही शक्ति का संचार होता है ।। २९४ ॥

ऐसा योगी जो कुल अर्थात् शरीर में अवस्थित तो दीख पड़ता है किन्तु शैवसमावेश के परामृत से जिसका अस्तित्व सराबोर है तथा चिदैकात्म्य की दृढ़ता से जो देहभाव ही भूल चुका है–उसको उठने बैठने की सारी प्रक्रिया ही मुद्रा हो जाती है । वस्तुतः हाथ आदि अंगों से बनायी जानेवाली नियत आकृतियाँ मुद्रा नहीं हैं । “नाद ही मन्त्र है और स्थिति ही मुद्रा है।” इस उक्ति से यही तथ्य प्रमाणित होता है । “किसी प्रकार की स्वाभाविक स्थिति ही मुद्रा है।” उन लोगों के ये विचार भी यही सिद्ध करते हैं ॥ २०० ॥

योगी पुरुपों का यही महत्त्व है कि वे इस विश्व को ही शिवात्मभाव से जानते हैं किन्तु पशुजनों में शुद्धि अशुद्धि रूप विच्छिन्न भाव ही दृढमूल होते हैं जिससे धरा आदि में समान रूप से रहने वाली शिवात्मता को वे नहीं जान पाते।

“न कहीं जाना, न कुछ छोड़ना आदि इन पचड़ों से पृथक् हे परमेश्वर ! जो इसको ही तुम्हारा धाम मानते हैं, उन्हें बारम्बार नमन ।” यही त्रिक दर्शन की मान्यता के अनुकूल है ॥ २५६ ॥


5

इस उक्ति के अनुसार हृदय में ही परमतत्त्व का साक्षात्कार करते हैं। वह तत्त्व कुसूम के समान सुकोमल, मकरन्द मनोज और अतिशय आनन्द का आधार है। जैसे केले का फूल बाहर भीतर एक पर एक कोरकों की परतके सटाव से कसे हुए आँखों को आनन्द देते हैं, उसी तरह यह भी बाहर भीतर तन्मात्राओं से इन्द्रियों और इन्द्रियार्थों से संवेष्टित होकर सम्पुटाकार अवस्थित है। केले के फूल के एक एक बाहरो कसाव से भरे कोरकों को हटाते हुए उसके अन्तराल के सौन्दर्य का दर्शन होता है। उसी तरह आत्मज्ञपुरुष बाह्य आवरण को अनावृत कर परमतत्त्व का साक्षात्कार कर लेता है ॥ २१॥


6.

सृष्टि का एक मनोवैज्ञानिक क्रम है। इन बारह राशियों में भी एक क्रम अभिव्यक्त होता है । सर्वप्रथम सृष्टि बीज का शक्तियोनि में आधान होता है । इसे शास्त्र की भाषा में ‘गर्भता’ कहते हैं। यह मकर संक्रान्ति में श्रेयस्कर होता है। दूसरी दशा में विशेष रूप से उत्पन्न होने की इच्छा का आदिम स्पन्द क्रियाशील हो जाता है । इसे ‘प्रोबुभूषिष्यद्भाव’ कहते हैं । इससे आगे की सक्रिय स्थिति का नाम ‘उबुभूषता’ है । यह उद्मभूषु प्रमाता की इच्छा का भाव होता है । इसमें उत्पत्ति की क्रिया और उसकी इच्छा का समन्वय होता है। इसके बाद चौथो अवस्था में उत्पन्न हो जाने के लिए स्वात्म में एक उच्छलन पैदा हो जाता है। यह उत्पत्ति की स्वात्मोच्छलत्ता का भाव है। इसे ‘उद्भविष्यत्त्व’ कहते हैं। पाँचवीं अवस्था ‘उचूति प्रारम्भ’ कहलाती है। इसमें क्रिया के प्रवर्तन की लालसा का उल्लास रूप-ग्रहण करने को आकुल हो जाता है । छठी अवस्था ‘उद्भव स्थिति’ इसमें सक्रियता की ओर उन्मुखता हो जाती है । सातवीं अवस्था में ‘जन्म’ होता है । पुनः स्थितिरूपा ‘सत्ता’, ‘परिणाम’ ‘वृद्धि’, ‘ह्रास’ और बारहवीं अवस्था ‘क्षय’ की होती है। बाह्य बीजों में भी यही बारह अवस्थायें क्रमशः आती हैं । इनमें जप आदि के तदनुरूप फल ही होते हैं। कहा गया है कि, “आधान, इच्छा, संयोग, आनन्द, घनता, स्थिति, जन्म, सत्ता परिणति, वृद्धि, ह्रास और क्षय ये १२ अवस्थायें सृष्टि के प्रवर्तन की प्रक्रिया में अनिवार्यतः आती हैं । माघ मास से ही ये अवस्थायें साधकों की साधना के क्रम में अथवा सृष्टि की उत्पत्ति में आती हैं” ॥११८॥

स्व० ७|८ में कहा गया है कि “नाभि से नीचे मेढ़ के और गुदा के बीच में एक गद्दीदार मुलायम अङ्ग है। उसे ‘कन्द’ कहते है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है। अश्विनी मुद्रा से यह पुष्ट होता है। इसी से अधोमेरुस्थशैव लिङ्ग में लिपटी कुण्डलिनी का मुंह सटा होता है। उसी के उत्तेजन से और ‘कूर्च बीज’ की मान्त्रिक योजना से कुंडलिनी जागृत होती है और चक्रों का भेदन होता है ।


7.

इसलिये आगमिक या सभी आचार्य यह स्वीकार करते है कि चाहे जप हो, अर्चा हो या होम आदि हो, सब में प्राणसाम्य की विधि का आचरण आवश्यक है।

विद्याओं और माला मन्त्रों के जप मानस होने चाहिये। अथवा उपांशु जप होना चाहिये। शक्ति के उदय में इनका संयोजन नहीं होता। स्व० २।१४७ के अनुसार “जिसे स्वयं भी न सुन सकें, वह मानस जप है। स्वयं सुनने पर उपांशु और दूसरों के सुनाई देने पर वह मात्र शब्दोच्चारया रह जाता है”।


8.

पेरने से तिलों से तिल निकल आता है और दूहने पर गायों से दूध निकलता है, तिलों में तेल और गायों में दूध पहले से हैं, केवल पेरने और दूहने की प्रक्रिया अपनानो पड़ती है । यह अभिव्यंजक प्रक्रिया कारण रूपा है पर कार्य तो पहले ही विद्यमान है। इसलिए कहते हैं कि कारण व्यापार से पहले कार्य का अस्तित्व रहता ही है।