Excerpts from श्रीतन्त्रालोकः Part-2

10 Jun 2020 |

9. नवममाह्निकम्

अतः घड़े के निर्माण के पहले मिट्टी को घड़ा बनाने योग्य किया जाना आवश्यक होता है । मिट्टी के संस्कार में कुम्भकार उपयोगी होता है । उतने मात्र में उसका उपयोग है । संस्कार सम्पन्न मिट्टी होती है। कुम्भकार उसे देखकर कुछ सोचता है। मिट्टी के अतिरिक्त उसके मन में चिकर्षित या प्रकल्पित घड़ा उदय होता है। उसके चित्त में एक आकृति परिस्फुरित होती है। उतने से तो घड़े का बाह्यावभास नहीं हो जाता । ऐसी स्थिति में परमेश्वर शिव की इच्छा का चमत्कार आरम्भ होता है। कुम्भकार और गोंदी-सनी मिट्टी के लोंदे की आपसी अपेक्षा के आधार पर शिव की इच्छा शक्ति ही घड़े रूप कार्य को जन्म देती है। कुम्भकार के मन में यह झूठा अभिमान होता है कि मैंने इस घड़े को या इन कुंडे पुरवे आदि मृन्मय वस्तुओं को बनाया है। यह अभिमान भी शिवेच्छा शक्ति के महत्त्व की ओर ही संकेत करता है ।

इस पर सोचने की बात यह है कि शक्ति एक ऐसा तत्त्व है जो सब पदार्थों में व्याप्त है। उसके बिना तो किसो पदार्थ की सिद्धि ही नहीं हो सकती।

विश्व एक अभिनय का मञ्च है। उस पर अभिनेता अपनी कला का निर्वाह करता है। विश्व मञ्च पर सारे जीव इस अभिलाष मल के वशीभूत होकर जीवन के जीवन्त नाट्य कर्म का सम्पादन कर रहे हैं । दुःख का सागर उमड़ता है और अणुओं का अगणित समुदाय उसके थपेड़ों को चपेट झेलने के लिये लाचार हो जाता है। कर्मवश उसमें डूबना उतराना इनकी नियति बन जाती है।

श्री पूर्वशास्त्र में यह स्पष्ट रूप कहा गया है कि, ईश्वर की इच्छा से ही इसमें भोग की इच्छा उत्पन्न होती है। भोगेच्छुओं के उपकार के लिये आद्य मन्त्र महेश्वर माया में विक्षोभ उत्पन्न करते हैं और चित्र-विचित्र संसार का निर्माण करते रहते हैं। यहो बात श्रीपूर्वशास्त्र इन शब्दों में व्यक्त करता है– “ईश्वरेच्छा वश इसमें भी भोग की इच्छा उत्पन्न होती है। भोगेच्छु अणु की भोगसाधनों की संसिद्धि के लिये मन्त्रेश्वर ने माया में आविष्ट होकर अपनी शक्तियों से विश्व को उत्पन्न कर दिया।” इसीलिये परमाद्भुतोद्भव का हेतु उसे मानते हैं ॥ १४७-१४८ ।।

माया भी उसी देवाधिदेव परमेश्वर की अव्यतिरेकिणो शक्ति है । शिव का भेदावभास स्वातन्त्र्य ही माया है। उसी के द्वारा किया हुआ मायाकार्य ही विश्व है। विश्व का अवभास ही भेदावभास है। निखिल विश्व के उल्लास की क्रीडा में लगे परमेश्वर के स्वातन्त्र्य का परिणाम ही भेदावभास है। माया का अर्थ है-अपूर्णताप्रथा के द्वारा आत्महनन अनात्म स्वीकरण । फल है उसका, कारण में कार्य का भेदात्मक उपचार ।। १४९ ।।

जहाँ तक इसे व्यापिनी मानने का प्रश्न है, इसलिये स्वीकार करना आवश्यक है कि पुरुषों के भोग के लिये कार्यकारणात्मक विश्व में सर्वत्र अनेक भोग स्रोतों को प्रस्तुत करने में कारण यही बनती है। कहा भी गया है कि, “यह व्यापिनी है। अनन्त पुरुषों के अनन्त भोगों को प्रस्तुत करने के लिये सार्वत्रिक रूप से विश्वमय स्रोतों के माध्यम से वे सारे कार्य करती है, जिनसे उसका लक्ष्य पूरा हो सके।”

श्री स्वच्छन्द शास्त्र (१।६० ) की उक्ति है कि, “माया तत्त्व संसार का बीज है। यह नित्य है, विभु है और अव्यय तत्त्व है । आत्म वर्ग ( ज्ञान क्रियारूप ) को वहाँ प्रतिष्ठित कर प्रभु पुनः ज्ञानशक्ति से उसका अवलोकन कर अक्रम भाव से ही माया में क्षोभ उत्पन्न कर देते हैं । क्षोभ का रूप भी बड़ा विचित्र होता है।

मालिनी विजयोत्तरतन्त्र १।३० के अनुसार भी यह सिद्ध होता है कि बुद्धि से अहङ्कार की उत्पत्ति होती है।


10. दशममाह्निकम्

“परमेश्वर शिव स्वयं से स्वयं को बन्धन में डालता है।” उसके स्वातन्त्र्य का यह एक रूप है। इसका सदा आकलन करना चाहिये ॥ ११८ ।।


11. एकादशमाह्निकम्

ईश्वर प्र० ३।१३ के अनुसार लिखा है कि, “ईश्वर बाह्य उन्मेष को हो कहते हैं।” इस कथन के माध्यम से यह नित्योदित ईश्वर का ही रूप माना जाता है । विदि क्रिया का वही कर्ता है। उसी रूप से वह प्रवृत्त भी होता है। इस तरह बाह्य उल्लास में नित्य अभिव्यक्त ईश्वर तत्त्व ही नित्योदित विन्दु कहा जा सकता है ।

अभिन्न मालिनी शक्ति को एक स्त्री के रूप में चिन्तन कर हृदय में प्रतिष्ठित करना चाहिये। सुन्दर श्वेत वस्त्रों के परिधान से पावन, भूषालंकार विभूषित, नाभि चक्र में अधिष्ठित, कोटि-कोटि चन्द्र की शीतल रश्मि प्रभा से भासमान मालिनी देवी का ध्यान करना चाहिये। यही देवी सभी शास्त्रों को बीजरूपा शक्ति है। वही बीज अनवरत अपने मुख से निकल रहा है-इस चिन्तन सहित उपांशु जप होना चाहिये। बीज का रूपानुचिन्तन ऐसा होना चाहिये, जिसमें वह ललित हारलता के आकार से समन्वित लगे। बीज प्रकाश के उस पुत्र के समान लगता हो, जिससे रश्मियाँ विस्फुरित हो रही हों और वह किरणों से रमणीय लग रहा हो । मुख से अक्षरों के निकलते समय तारों के समान चमकीलेपन की अनुभूति हो रही हो। इस प्रकार ध्यान और चिन्तन करते हुए जो इस विद्या की उपासना करता है, वह देवी की कृपा से १५ दिनों के अन्दर शास्त्रीय सन्दर्भो और तत्त्वों का अप्रतिरूढ भाव से कथन करने में समर्थ हो जाता है। एक मास की उपासना के फलस्वरूप स्वप्न में मां का दर्शन करता है। उसे समाधि को स्थिति प्राप्त हो जाती है।

‘ह्रींनफ ह्रीं’ के बीज में विद्यमान इस वर्ण-क्र को उपासना से वाक्-सिद्धि आदि कई अनोखी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

नगर, समुद्र, पर्वत आदि उसी परा इच्छा के अनुविधान और व्यवस्था के अनुसार ही नियत देश-काल और नाम से नियन्त्रित होकर अवस्थित हैं। ये स्वयं न सत् हैं और न असत् । न कारण हैं और न अकारण। इनमें देश काल और नाम की सारी प्रकल्पना यही सिद्ध करतो है कि, ये उसी इच्छा के अनुविधायी हैं।


13. त्रयोदशमाह्निकम्

‘सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः।’ अर्थात् सत्त्व, रजस् और तमस् गुणों को साम्य अवस्था को ही प्रकृति कहते हैं। यही मूल अव्यक्त प्रकृति कहलाती है। इसे ही प्रधान कहते हैं। यह किसो को विकृति नहीं होती। यह प्रकृति ही सृष्टि की हेतु मानी जाती है। इस प्रधानरूपा प्रकृति का कोई कारण नहीं होता। बीजाङ्कुर न्याय यहाँ लागू होता है। जिस समय प्रकृति में तोनों गुण बराबर-बराबर होते हैं उनकी प्रधानता न होकर प्रकृति की ही प्रधानता होती है। इसीलिये प्रकृति को इस अवस्था को प्रधान या साम्यावस्था कहते हैं।

परमेश्वर स्वभावतः प्रकाशात्मा, स्वतन्त्र चिद्रूप दिव्य शक्ति सम्पन्न परम तत्त्व है । अपने आप ही अपने रूप के प्रच्छादन की क्रीड़ा का प्रौढप्रदर्शक है । अपनी इसो कला के प्रभाव से परिपूर्ण दृक् क्रियावान् स्वयं संकुचित दृक् क्रियावान् अणु बन जाता है । साथ हो साथ एक से अनन्त अणु वर्ग में अपने को विभाजित कर लेता है। इसका प्रकाश किसो जड़ प्रकाश जैसा सूरज, बिजली, आग आदि प्रकाश होता है, ऐसा नहीं है। स्वतन्त्र कहने का तात्पर्य है कि यह सारे संसार को सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोधान और अनुग्रह समर्थ निरपेक्ष दिव्य तत्त्व है । यह स्वयं निर्मित कृत्रिम अनन्त रूपों में व्यक्त स्वयम् उल्लसित जगन्निवास परमेश्वर है ।। १०२-१०३ ।।

देव देव परमेश्वर महादेव स्वयं ही स्वयं को बाँधता भी है और स्वयं छोड़ता भी है। वह स्वयं भोक्ता है, स्वयं ज्ञाता है और स्वयं सारे विश्व को स्वात्मरूप से परिलक्षित भी करता है।

वह स्वयं भोग के व्यापार रूप भुक्ति में भी चरितार्थ है। स्वयं बन्धन विहीनता को आनन्दवादितारूम मुक्ति में भी मुस्कराता है। स्वयं शक्ति है। स्वयं शक्तिमन्त प्रभु परमेश्वर भी है। स्वयम् एकाक्षर तत्त्व है। एक भी है अक्षर तत्त्व भी है। एकाक्षरा पराभट्टारिका शिवा भी है। ऐसा यह स्वयं सर्वशक्तिमन्त परम शिव है।

एक स्थान पर यह कहा गया है कि “इस परमेश्वर की शक्तियों का उल्लास ही यह सारा विश्व है।” इस उक्ति के अथवा इसी तरह की अन्य उक्तियों के आधार पर यह कहा जाता है कि यह सारा विश्व परमेश्वर की शक्तियों के स्फार का ही सार रूप है। इसी वैचारिक भूमि पर यह भी कहा जा सकता है कि उन उनभावों की तरह लौकिक ये सारे शुभ भी उन्हीं शक्तियों के स्फार-सार रूप हैं।


14. चतुर्दशमाह्निकम्

वास्तविकता तो यही है कि, अपने को शिव कहना और मानना ही उचित है। जीव शिव है ही। इसमें सन्देह नहीं। अपने में कभी भी किसी अवस्था में भी खण्डित शिवत्व की कल्पना नहीं करनी चाहिये। यह भी नहीं सोचना चाहिये कि, यदि मैं स्वयं शिव हूँ, तो मेरी इच्छा का अनुवर्ती यह विश्व क्यों नहीं? शैव सिद्धि के बाद क्या यह हो भी सकता है? ।।२८।।

मेरी इच्छा के अनुरूप ही जगत् का अनुवर्तन हो, ऐसी इच्छा करना साधक के लिये उचित भी नहीं है। इसमें अशुद्ध अहं के अभिशाप का भय होता है। यह देह क्या है। यह शिव की इच्छा से निर्मित है। अन्यथा ऐसा शरीर नहीं होता। शिव हो या परमशिव, यह विश्वशरीर उसकी ही निर्मिति है। यह शिव का ही स्वात्म शरीर है। वैसे हम अपने को शिव मान कर, अनुभव कर सकते हैं कि, यह विश्व मेरी इच्छा का ही अनुवर्त्तन है। यह देहता कोई दूसरी प्रक्रिया नहीं है। परमेश्वर की इच्छा ही है। इसमें किसी प्रकार की वाच्यता के लिये कोई स्थान नहीं है।

इसी तरह एकान्त में बैठे स्वात्म में ही परमेश्वर का अनुसन्धान करना भी एक अन्यतम और पावनतम स्नान होता है। शैव महाभाव का अमृत वहाँ लहराता हुआ अनुभूत होता है। यह स्वच्छ सुधा-समुद्र होता है। उसमें विश्व को डुबो दे, आत्मा के आवरणों को उसमें बहा दे। ऐसा साधक स्वयं शुद्ध सांसिद्धिक शोधक (गुरु) बन जाता है।


15. पञ्चदशमाह्निकम्

माया का स्वाभाविक स्थिर रूप-माया परमेश्वर की उस शक्ति का नाम है, जो ‘स्व’ रूप का गोपन करती है।

शरीर सभी दिव्य शक्तियों का आधार है। सर्व देवमय शिव होते हैं और सर्व देवमय शरीर भी होता है। अत: शरीर शिवमय माना जाता है। समस्त प्राणियों का शरीर शिवात्मक है। यह सीधी सादी बात है, स्फुट है, साफ है, यह श्रीमन्नकुलेश आदि शास्त्रकारों द्वारा सम्यक् प्रकार से निरूपित किया गया है।।६०४।।

शरीर ही एक मात्र ऐसा आयतन है, जहाँ शान्ति प्राप्त होती है। अन्य आयतनों में जाना व्यर्थ है। जहाँ तक तीर्थों का प्रश्न है, तीर्थ यह शरीर ही है। किसी अन्य तीर्थ में जाने की कोई आवश्यकता नहीं।।६०५।।


18

यह ‘ॐ शिव ( शिष्यनाम ) शिवाय स्वाहा’ रूप मन्त्र होना चाहिये । इस मन्त्र से एक हजार हवन करे अर्